ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

सोमवार, मई 25, 2009

कांग्रेस,कर्जमाफी और सरकार

जब मुख्य विपक्ष दल मुद्दा विहीन और केवल काउन्टर करने वाली राजनीति कर रहा था,तब कांग्रेस के दो बड़े काम दो बड़े काम किसानों की कर्जमाफी और रोजगार गारंटी कानून चुपके से उसके वापसी की जमीन तैयार कर रहे थे। चुपके से इसलिए क्योंकि कांग्रेस भी अपने इस काम को लेकर ज्यादा आशावान नहीं दिखाई दे रही थी। कर्जमाफी से जिन लोगों को फायदा मिला वे कांग्रेस के चुनाव एजेंट कहें तो प्रचारक बन गए। जिन्हें नहीं मिल पाया वे इस आशा में कांग्रेस के साथ आ गए कि कांग्रेस और कर्ज माफ कर सकती है। यह अलग बात है कि किसानों को असलियत में कितना फायदा हुआ और नरेगा ने रोजगार या भ्रष्टाचार में किसे बढ़ाया है। सूदखोरों के चंगुल में फंसे किसानों की खुदकुशी जारी है। इसके साथ-साथ कांग्रेस के पक्ष में माहौल तैयार करने में राजनीतिक विकल्पहीनता एक बड़ा कारण है। मण्डल सिफारिशों के लागू होने के साथ भारतीय राजनीतिक फलक अस्मिता की राजनीति करने वाली राजनीति का भी उदय हुआ। अस्मिता की राजनीति ने उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे सूबों में कांग्रेस को इकाई तक समेट दिया। इसी दौर में मुलायम, पासवान, लालू, नीतीश, माया जैसे पिछड़ी और दलित जातियों के प्रतिनिधित्व कर्ताओं का उदय भी होता है। इस बार कांग्रेस के उदय में इसी अस्मिता की राजनीति करने वालों की विफलता ज्यादा मदद साबित हुई। इन प्रतिनिधित्वकर्ताओं ने अपने पीछे अस्मिता की तलाश में खड़ी जनता को मूर्ख बनाना शुरू कर दिया। इस जनता की आशाओं का सत्ता के गलियारों में सौदा करने लगे। जनता भी मौके देने से नहीं चूकी। लेकिन ये नेता जनता की नब्ज भांपने में चूक गए। अस्मिता के संकट से जूझ रही जिस जनता ने इन नेताओं को कांग्रेस का विकल्प माना था,वह अपने को ठगा सा महसूस करने लगी। मायावती जैसी नेताओं की राजनीति ने इस जनता को सबसे ज्यादा निराश किया। मायावती की पूरी राजनीति मानवीयता का तात्कालिक संदर्भ खोने लगी। दलित अस्मिता के एतिहासिक प्रमाण खोजने की कोशिश में मूर्तियों को ही राजकीय कारोबार मान बैठीं। चौराहों और नुक्कड़ों को अपनी ही आदमकद मूर्तियों से सजाने लगे। जन्मदिन के मौकों पर अपने से ज्यादा वजन के केक काटने वाली मायावती यह भूल गईं कि उन्हें वोट देने वाली जनता इसे देख रही है। उपहार के नाम पर गुंडा टैक्स की तर्ज पर सरकारी मशीनरी ने जम कर उगाही शुरू कर दी। मायावती को मुख्यमंत्री बनें दो साल भी नहीं हुआ था कि यह कहने और सुनने वालों की संख्या में बेतहासा बढ़ी कि जो काम बाकी सरकारों के राज में 100 रुपए देकर हो जाया करते थे,अब बहन जी के राज में 300 रुपए देकर होते हैं। ऐसी बातें राजनीति के सरेबाजार लुट जाने का दर्द बयां करती हैं। यही कारण है कि सत्ता में काबिज रहने के बावजूद अपने जनाधार को फिसलने से नहीं बचा पाईं हैं,जबकि मायावती गाहे-बगाहे यह दावा करतीं रहीं है कि हर चुनाव में उसके जनाधार में बढ़ोत्तर तय है।
ऐसे हालात में जनता के सामने जाने-पहचाने और अजमाए हुए चूरन की तरह कांग्रेस ही नजर आ रही थी क्योंकि बीजेपी जैसी मिथकों में जीने वाली पार्टियां भावनाओं की उडा़न के साथ सत्ता सुख भोग कर रोटी के धरातल पर शान्त हो चुकी हैं। लेकिन कांग्रेट जैसी पार्टी की जीत पर खुशी नहीं होनी चाहिए क्योंकि उसके एजेंडे में विकास का मतलब केवल गरीबी रेखा को ऊपर-नीचे करना है। इसकी झलक भारतीय राजनीति के गुजरे वक्त में कांग्रेस किये गए कामों में स्पष्ट देखी जा सकती है। जैसे वेटिंग इन पीएम राहुल गांधी के कलावती के घर जाने की बातों को लेकर खूब चर्चाएं हुईं। कलावती किसके शासन की विरासत हैं,यह देखा जाना चाहिए क्योंकि इस देश की राजनीति में कांग्रेस चालीस साल एक छत्र शासन किया है। अगर कलावती चालीस साल के शासन की देन हैं तो कांग्रेस की जीत पर खुशी क्यों जताई जा रही है। कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि कांग्रेस किसी भी तरह के फेरबदल में कोई विश्वास नहीं रखती है। इसलिए इस बार के लोक सभा चुनाव में एक नारा बड़ी प्रमुखता से उछाला था कि अतीत की नींव पर भविष्य का निर्माण। यह नारा अपने आप में कांग्रेस के यथास्थितिवादी होने का सबूत है। कांग्रेस के नेतृत्व में गठित यूपीए सरकार के प्रधानमंत्री डॉ.मनमोहन सिंह ने पिछले साल एसोचेम की सालाना बैठक में यह घोषणा की थी कि सब्सिडी को ज्यादा दिनों तक बर्दास्त करना मुनासिब नहीं है। खैर तब तक लोकसभा के चुनावों की आहट शुरू हो गई थी और प्रधानमंत्री मनमोहने सिंह ऐसा कुछ नहीं कर पाए थे। हालांकि अब मनमोहन सिंह ज्यादा ताकत के साथ सत्ता में वापस लौटे हैं और इस बार वाम समर्थन की मजबूरी भी नहीं है तो वे अपने इस प्रोजेक्ट को कितने दिन टाल पाऐंगे,ये देखने वाली बात होगी। भारत में आर्थिक सुधारों के जनक व भारत के प्रधानमंत्री के रुप में मनमोहन को दोबारा पाकर बाजार फूले नहीं समा रहा है। उसे पूरा विश्वास है कि प्रधानमंत्री बाजार की तानाशाही कायम करने में कोई कोर कसर नहीं छोडेंगे। अर्थशास्त्री होने के नाते मनमोहन सिंह अपनी जनपक्षीयता आंकड़ों के सहारे तय करते हैं। ऐसे में रोटी की मंहगाई से ज्यादा विकास दर की चिंता सता रही होती है। इसलिए इस सरकार के गठन के साथ ही यह खुशफहमी छोड़ने की जरूरत है कि यह सरकार कुछ नया वह भी आम आदमी के लिए करेगी क्योंकि आम को खास बनाने की कोई भी प्रक्रिया भारतीय राजनीति में हो ही नहीं रही है। इसलिए अतीत के गौरव से ही आनंदित होने का वक्त है,ताकि किसी परिवार विशेष के भविष्य का निर्माण हो सके।

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