ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)

मंगलवार, नवंबर 04, 2008

क्या राहुल वाकई मर गया

राहुल की उम्र देश के युवाओं का प्रतिनिधित्व करती है। जिस तरह से हमने गड़बड़ियां पैदा की हैं...उसका नमूना है राहुल का राज ठाकरे से बात करने की जिद ...जबकि वह सिर्फ बात करना चाहता था ,फिर भी उसकी आवाज को दबा दिया गया। उससे पुलिस को इतना खतरा क्यों लगा। जबकि उसने न तो किसी को मारा और न ही उससे पास पिस्टल के अलावा कोई हथियार था। अगर उसका उद्देश्य मारना होता तो वह राज ठाकरे से बात करने की जिद क्यों करता । लेकिन भारतीय स्टेट पुलिस की एक और सक्रियता...एक और सफलता.....एक और एन्काउटर.....मारने वाले पुलिस इंस्पेक्टर के प्रोफाइल में एक और एनकाउन्टर की बढ़ोत्तरी....जिस प्रक्रिया के तहत भारत में विकास को आगे बढाया जा रहा है,उसके आधार पर इसकी सम्भावना तेज हो जाती है कि सैकड़ों राहुल लोकबाग, अदालती कार्यवाहियों और शासकीय सुरक्षा पर विश्वास करने के बजाए खुद ही हथियार उठाने लगें। राजठाकरे को रोकने के लिए सीधे चुनौती देने वाला राहुल यह कतई साबित नहीं करता कि वह आज के हालात में अकेला विद्रोही है। फिलहाल पुलिस ने उसे मार दिया है, लेकिन उसकी मौत ने यह बताने में सफलता हासिल कर ली है,स्थितियों के और बदतर हो जाने का इन्तजार करना उसके बूते से बाहर था।एक साथ हो रही कई घटनाओं को अलग करके देखने पर चीजें हल्की हो जाती हैं। जोड़ते हुए देखें तो बात जेएनयू के छात्र चुनाव पर रोक तक भी जाती है। जिसे इसलिए रूकवा दिया गया है कि जेएनयू में लिंगदोह कमेटी की सिफारिशें लागू नहीं हैं। जबकि जेएनयू छात्र चुनाव अपने आप में एक मॉडल के बतौर काम कर रहा है। आज हर मोर्चों पर छात्रों और युवाओं को छला जा रहा है। इसमें एक साजिश यह भी है कि आने वाले समय में युवाओं किसी भी संगठित शक्ति या सक्षम नागरिक बनने से रोक दिया जाए। उसके पास खाने के लिए पिज्जा हो,पहनने के तरह के लिए तरह-तरह के ब्रांड हो, लगाने के लिए किस्म किस्म के परफ्यूम हो और नाचने के लिए डिस्को क्लब हो ...लेकिन सब कुछ ईएमआई पर....अगर कुछ न हो तो वह है दिमाग यानी चीजों को सोचने समझने की ताकत। यही कारण है कि केंद्र की सरकार हो या राज्य की,विकास को इसी रास्ते से आगे बढ़ाया जा रहा है। जेएनयू छात्र चुनावों की खासियत है कि इस चुवाव को कराने में विश्वविद्यालय प्रशासन केवल पर्यवेक्षक होता है,बाकी सारा काम यहां के छात्रों से बनी चुनावी समिति करती है। इससे सवाल पैदा करने वाली जगह सिमटते हुए औपचारिक उद्घाटनों तक जा पहुंचेगी। फिर यहां का हाल बंदूक के साए में लोकतंत्र जैसे होगा।जानना जरूरी है कि राज ठाकरे के चमचों ने किन्हें पीटा और क्यों...चमचा इसलिए क्योंकि इसमें समूची जनता की भागीदारी नहीं है। दरअसल यहां मारने वाले और मार खाने वाले दोनों ही एक ही दर्द के शिकार हैं। इसमें राजठाकरों(यह भी एक प्रजाति है) की कामयाबी बस इतनी है कि इन लोगों ने मारने और मार खाने वालों को एक दूसरे का अपराधी बना दिया है। रोजगार के लिए ही लोग यूपी-बिहार से बम्बई गए और इसी रोजगार को मराठियों से जोड़ते हुए राज ठाकरे ने मुद्दा बनाया । जबकि समस्या बड़े फलक पर युवाओं की बेरोजगारी की है,लेकिन उसे यूपी,विहार और महाराष्ट्र के खांचों में बांटकर सस्ती राजनीति का खेल खेला जा रहा है। बम्बई में कांग्रेस की सरकार है,वही कांग्रेस जिसका राजनीतिक रंग आज तक तय नहीं हो पाया है। राज ठाकरे के उदय को ही लें तो उसकी भड़काऊ बयानबाजी को तब तक रोकने की कोशिश नहीं की गई जब उसे बिहार में मान्यता नहीं मिल गई। लोग सड़कों पर नहीं उतर आए। कांग्रेस को होने वाला राजनीतिक लाभ साफ है। महाराष्ट्र में मराठी हित को सुरक्षित रखने का लाभ तो बिहार में नीतीश की विफलता का कार्ड काम करेगा। कांग्रेस चाल इतनी सटीक है कि ऐन चुनाव के मौके पर सारी कारस्तानियों को मौका दिया गया है। उड़ीसा और कर्नाटक में भी धुव्रीकरण साफ है। अगर राज्यों में ऐसा नहीं होता तो उसे केंद्र में सरकार चलाने के कारण कई जगहों जवाब देना पड़ता। इस हालात में मुद्दे बिखर गए हैं,जिन पर सवालों का जवाब देने के बजाय बरगलाया जाना आसान हो गया है। कांग्रेस के पांच साल शासन में रोटी इतनी मंहगी क्यों हुई...आतंकवादी घटनाओं का इतना फैलाव क्यों हुआ...राज्य प्रायोजित आतंकवाद के बारे में आपकी नीतियां क्या है.....देश के पास युवाओं के लिए क्या नीति है....खासकर रोजगार के संदर्भ में.......केंद्रीय मंत्रिमण्डल में ऐसे लोगों की मौजूदगी के क्या कारण है जो रिसते खून और बारूद की गंध के बीच तीन-तीन बार कपड़े बदलते हैं....क्या कारण है कि हार्सट्रेडिंग के नाम पर बिहार में नव निर्वाचित विधानसभा को भंग कर दिया गया था लेकिन ईसाइयों पर हमले और ननों के साथ बलात्कार की घटनाओं के बावजूद उड़ीसा और कर्नाटक राज्य सरकारों को छूट दी गई.......मानवाधिकारों को लेकर केंद्र सरकार क्या कर रही है...जबकि आतंकवादी घटनाओं में शामिल होने के नाम पर सैकड़ों लड़कों को उठाया जा चुका है। पुलिसिया आतंक इतना है कि अल्पसंख्यक न केवल अपने घरों और मुहल्लों में दुबकता जा रहा है बल्कि अपना नाम बताने से भी डरने लगा है। बात यहीं तक सीमित नहीं रही है अब मानवाधिकार कार्यकर्ताओं,पत्रकारों और उनके रिश्तेदारों को निशाने पर लिया जाने लगा है। पुलिसिया अपराध की ताजा घटनाक्रम में चौबीस अक्टूबर को लखनऊ से चार मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को उठाया जाता है और लगभग अस्सी घण्टे बाद भारतीय दण्ड संहिता के धारा चार सौ बीस के तहत कोर्ट में पेश किया जाता है। जबकि इस दौरान सभी आला अधिकारी किसी भी जवाबदेही से बचते नजर आए। यह भी राहुल को मारने जैसा ही उपक्रम हैं। इस समय पूरे देश में सरकारी साजिश की मुखालफत करने वाली आवाज को दबाया जा रहा है। सुलझाने की कुव्बत नहीं है क्योंकि इसके राजनीति की गिरोहबाजी वाला रास्ता छोड़ना पड़ेगा। आज के जिस दौर में भारतीय जन मानस है,उसमें कुण्ठा और विकल्पहीनता का बोलबाला है। यही कारण है कि उसे किसी भी बात पर भावुक होता देखा जा सकता है। ऐसे ही जनमानस से गिरोहबाजी वाली राजनीति को खाद पानी मिल सकती है। भावुकता से निकले आंसुओं से ड़बडबाई जनता की आंखों के सामने हेरा फेरी करने में दिक्कत नहीं आती है।पूरे भारतीय लोकतंत्र को इतने अलोकतांत्रिक ढ़ंग से विकसित कर दिया गया है कि अब तो हर गलत चीज सही नजर आने लगी है। यानी आज के इस दौर में ईमानदारी शक की निगाह से देखी जाने लगी है। राजनीतिक ईमानदारी को मानसिकता के स्तर तक झुठला दिया गया है। इससे बड़ी विडम्बना क्या होगी कि पुलिस को न्यायिक अधिकार देने वाले कानूनों(पोटा) को लाने के लिए आन्दोलन चलाया जा रहा है। जबकि मौजूदा कानूनों के बल पर हो रही मानवाधिकार हनन घटनाएं किसी से छिपी नहीं है।

3 टिप्‍पणियां:

राहुल सि‍द्धार्थ ने कहा…

bandhoo yahaa sab golmaal hai.itne wisfot desh me ho rahe koi pakara nahee jaa sakaa lekin rahul ko shoot out nindneya hai

डॉ .अनुराग ने कहा…

राहुल की मौत अब गौण है....उसकी लाश पर जो छिछोरी राजनीती का खेल शुरू हुआ है .वो भारतीय गणतंत्र के लिए शर्म की बात है.

बेनामी ने कहा…

www.mewarmaharanas.blogspot.com