मेरे एक वरिष्ठ सहकर्मी ने कई चैनलों पर चिल्ला चिल्लाकर ...... स्वर्ग का रास्ता दिखाने ॥ तो कभी साईं बाबा के एनिमेशन... दिखाने को स्वार्थी होने का फल बताया ..मैं मानता हूँ कि आपने सही कहा !आखिर वे मानवता की तिलांजलि दे कर चिला क्यों रहे थे ! क्या उनके न चिलाने का मतलब कामचोरी न कही जाती ......वे सभी जानते हैं कि मालिकों का हित यानि लाभ उनके चिलाने से ही तय होने वाला है .और मालिक के लाभ को बढाने के लिए ही तो उनकी नियुक्ति हुई है ....लाभ को बढाने का तरीका उनहोंनेनिकाला कि लोगों को चिल्ला कर सुनाया जाए ......आज हम जबरदस्ती ही सुना रहे हैं....न्यूज़ तो सुनना किसी को जैसे आता ही नही इसीलिए चिल्ला चिल्ला कर.... ये देखिये ....यही है असलियत ....कह कर दिखाया जाता है ....हिन्दी भाषी नव धनाड्य शहरी जनता के पास बेबसी से निहारते रहने के सिवाय और क्या है .....क्यों की उसे ही बाज़ार का गौरव शाली सदस्य माना जा रहा है ....सारा दबाव इसी को रिझाने के लिए है .....और यही पर जान लेना जरूरी है की इस मिडिया मे काम करने वालों की आर्थिक प्रस्त्भूमि क्या है.....क्या पत्रकार के जोखिम को सह पाने की शक्ति उसमे है...अगर नही है तो वह वही करेगा जो मालिक का मन होगा ......उसके विपरीत जानेकी हिम्मत नही होगी ......पत्रकार होने के संघर्ष मे जीविका को बचाये रखने की मश्कत भी है .....सुविधा जीविता का पहलू भी न्ज़रंदाज नही किया जा सकता .....और यहीं पर न चाहते हुए भी वह स्वार्थी होने लगता है .....और धीरे धीरे दर्द को समझने की काबिलियत ही खो देता है...आज का पत्रकार भी बाज़ार की जद से बाहर नही है.... यही उसकी कमजोरी भी है .....यही उसकी...........यातना भी ........
ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
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2 टिप्पणियां:
सत्य वचन.
अच्छा विश्लेषण किया आपने.
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