ॠषि कुमार सिंह॥ भारतीय जन संचार संस्थान, नई दिल्ली। "घर में ठंडे चूल्हे पर अगर खाली पतीली है। बताओ कैसे लिख दूँ धूप फाल्गुन की नशीली है।"(अदम गोंडवी)
रविवार, जून 15, 2008
ब्रेकिंग न्यूज़ संवेदना और मैं....
अब लगभग दो महीने पूरे होने को हैं ....नौकरी करते हुए ....यहाँ आने से पहले मैसोचता था की लोग किस हद तक न समझी दिखाते हैं...लेकिन अब लगता है की ये नासमझी नही बल्कि सब कुछ ब्रेक कर देने की जल्द बाजी का परिणाम है...जल्दबाजी यानि की कहीं दूसरा चैनल आगे न निकल जाए .... एक दुसरे से चल रही इस टी आर पी की होड़ ने संवेदनाओ की ऐसी की तैसी कर दी है.....अब अरुशी की हत्या भी ब्रेकिंग है.....और सी बी आई का अरुशी के घर पहुचना भी.....तेल का दाम बढना भी ब्रेकिंग है....दिल्ली के किसी इलाके मे रिमझिम बारिश भी ....जो बताया या पढाया गया था वह था कि जब खबर स्टोरी बोर्ड मे बदलाव पैदा कर दे और उसका असर ज्यादा लोगों पर हो रहा हो तो उसे ब्रेकिंग कहा जाएगा .....लेकिन खली और लाफ्टर चैलंज जैसे चीजे दिखाने वाले चैनलों को स्टोरी बोर्ड से कोई नाता ही नही रहा....कितनी सनसनी पैदा कि जा सकती है इसी कि जुगत मे लगे चैनल किसी नये प्रयोग का जोखिम ही नहीं लेना चाहते हैं... जोखिम न लेने कीमानसिकता ने उन्हें नकल करने के लिए मजबूर कर दिया है। हम कोई भी हिन्दी चैनल ले लें तो पाएंगे किथोड़े बहुत अंतर के साथ इनकी मनोदशा एक जैसी है। नये आ रहे चैनलों के साथ भी यही दिक्कत है। वे भी किसी नये तरह के प्रयोगों से बचनाचाहते हैं। अब तो लगता है कि अपने को न्यूज़ चैनल btane वाले सभी चैनलों को अपने अपने namon पर एक सिरे से विचार करना चाहिए कि उनके चैनल मे न्यूज़ कहाँ तक है..kyason और आगे क्या होगा जैसे sabdon के जरिये एक ही bat को chaba chaba कर bolne वाले riportr और anchor क्या बता रहे होते हैं .....अगर आधे ghante के पूरे program मे ये देखा जाए कि informetion कितनी थी ....usme bat jahan से शुरू होती है whin पर atki malum पड़ती है ...कोई nya pryog नही है siway इसके कि कैसे nya realty शो launch कर दिया जाए...
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1 टिप्पणी:
ऋषि तुम्हारा दर्द अच्छी तरह से समझ सकता हूं... दरअस्ल ये हर नये पत्रकार का दर्द है... ये आदर्शों के टूटने का दर्द है... और मैं भी इस मुहाने से गुज़र चुका हूं जिसकी टीस अभी भी बाकी है... एक वास्तविकता है जो तुम भी समझ सकते हो कि... चैनलों की भीड़ किसी समाज सेवा के लिए नहीं बल्कि फायदे के लिए लगी है.. ये सभी लालाओं की दुकाने हैं और हम उसमें काम करने वाले मुनीम... माल बेचने का ये तरीका हममें से ही कुछ लोगों का बनाया हुआ है.. भई लाला की नज़रों में बने रहना है और फिर पेट भी तो पालना है... लेकिन यहां हम ये नहीं देख रहे कि हम पत्रकारिता की नई पौध की जड़ें खोदते जा रहे हैं... खैर मैं समझता हूं कि हमारी जेनेरेशन इन तथाकथित आकाओं से कहीं आगे है.. एक दिन हम बता देंगे कि पत्रकारिता होती क्या है.. तब तक लगे रहो क्योंकि ट्रेंड बदलने के लिए आपको शीर्ष पर पहुंचना होता है...
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